Wednesday, June 25, 2008

साग़र साहेब की और ग़ज़लें

५.
अर्ज़—ओ—समा में बर्क़—सा लहरा गया हूँ मैं
हर सिम्त एक नूर—सा फैला गया हूँ मैं

दुनिया को क्या ख़बर है कि क्या पा गया हूँ मैं
सिदक़—ओ—वफ़ा की राह में काम आ गया हूँ मैं

फागुन की सुबह—सा कभी मैं झिलमिला गया
सावन की शाम— सा कभी धुँधला गया हूँ मैं

आईना—ए—ज़मीर पे जब भी नज़र पड़ी
अपना ही अक़्स देख के शरमा गया हूँ मैं

गुमनामियों का मेरी ठिकाना नहीं कोई
अपने ही घर में अजनबी कहला गया हूँ मैं

अपना पता मिले तो कहीं साँस ले सकूँ
हंगामा—ए—वजूद से तंग आ गया हूँ मैं

‘साग़र’! हिसार—ए—ज़ात से छूटा तो यूँ लगा
इक उम्र— क़ैद काट के घर आ गया हूँ मैं.

६.

खिला रहता था जिनके प्यार का मधुमास आँखों में
वही अब लिख गए हैं विरह का इतिहास आँखों में

करेगी शांत क्या उसको अब उनके प्यार की बरखा
न जाने कौन से जन्मों की है ये प्यास आँखों में

मेरे दिल की अयोध्या में न जाने कब हो दीवाली
झलकता है अभी तो राम का बनवास आँखों में

पवन जब मन के दरवाज़े पे हल्की—सी भी दस्तक दे
तो लौट आता है फिर खोया हुआ विश्वास आँखों में

उभरती है पुरानी चोट कोई जब कसक बनकर
तो जाग उठता है फिर से दर्द का एहसास आँखों में

ये किसके पाँओं की आहट ने चौंकाया मुझे ‘साग़र’!
कि उग आई है तृष्णाओं की कोमल घास आँखों में



७.
सुबह हर घर के दरीचों में चहकती चिड़ियाँ
दिन के आग़ाज़ का पैग़ाम हैं देती चिड़ियाँ

फ़स्ल पक जाने की उम्मीद पे जीती हैं सदा
सब्ज़ खेतों की मुँडेरों पे फुदकती चिड़ियाँ

अब मकानों में झरोखे नहीं हैं शीशे हैं
जिनसे टकरा के ज़मीं पर हैं तड़पती चिड़ियाँ

किसी वीरान हवेली के सेह्न में अक्सर
उसके गुमगश्ता मकीनों को हैं रोती चिड़ियाँ

जेठ में गाँव के सूखे हुए तालाब के पास
जल की इक बूँद की ख़ातिर हैं भटकती चिड़ियाँ

खेत के खेत ही चुग जाते हैं ज़ालिम कव्वे
और हर फ़स्ल पे रह जाती हैं भूखी चिड़ियाँ

सोचता हूँ मैं ये ‘साग़र’! कि पनाहों के बग़ैर
ख़त्म हो जाएँगी इक दिन ये बेचारी चिड़ियाँ.


८.
जो इक पल भी किसी के दर्द में शामिल नहीं होता
उसे पत्थर ही कहना है बजा वो दिल नहीं होता

ये शह्र—ए —आरज़ू है जिसमे हासिल है किसे इरफ़ाँ
यहाँ अरमाँ मचलते हैं सुकून—ए—दिल नहीं होता

अगर जीना है वाँ मुश्किल तो मरना याँ नहीं आसाँ
जहाँ कोई किसी के दर्द का हामिल नहीं होता

सफ़ीना बच के तूफ़ाँ से निकल आए आए भी तो अक्सर
जहाँ होता था पहले उस जगह साहिल नहीं होता

वो अपनी जुस्तजू में दूध की तासीर तो लाए
फ़क़त पानी बिलोने से तो कुछ हासिल नहीं होता

कुछ अपने चाहने वाले ही हिम्मत तोड़ देते हैं
वगरना काम दुनिया में कोई मुश्किल नहीं होता

क़दम जो जानिब—ए—मंज़िल उठे वो ख़ास होता है
जहाँ में हर क़दम ही हासिल—ए— मंज़िल नहीं होता

हमीं कल मीर—ए—महफ़िल थे न जाने क्या हुआ ‘साग़र’!
हमारा ज़िक्र भी अब तो सरे— महफ़िल नहीं होता.

९.
बसा है जब से आकर दर्द—सा अज्ञात आँखों में
तभी से जल रही है आग —सी दिन—रात आँखों में

अजब गम्भीर—सा इक मौन था उन शुष्क अधरों पर
मचा था कामनाओं का मगर उत्पात आँखों में

न दे क़िस्मत किसी को विरह के दिन पर्बतों जैसे
तड़पते ही गुज़र जाती है जब हर रात आँखों में

ढली है जब से उनके प्यार की वो धूप मीठी —सी
उसी दिन से उमड़ आई है इक बरसात आँखों में

न अवसर ही मिला हमको व्यथा अपनी सुनाने का
सिसकती ही रही इक अनकही—सी बात आँखों में

हुई हैं इनमें कितने ही मधुर सपनों की हत्याएँ
है जीवन आज तक भी दर्द का आघात आँखों में

तुम्हारे प्यार का जोगी तो अब बन—बन भटकता है
रमाए धूल यादों की लिए बारात आँखों में

कहीं ऐसा न हो ‘साग़र’! उसे भी रो के खो बैठो
सुरक्षित है जो उजड़े प्यार की सौग़ात आँखों में.

१०.

फिर निगाहों में आ बसा कोई
होने वाला है हादसा कोई

गुमरही—सी है गुमरही यारो!
कोई मंज़िल न रास्ता कोई

जाने क्यों उस बड़ी हवेली से
आज आती नहीं सदा कोई

हर कोई अपने आप में गुम है
अब कहे तो किसी से क्या कोई

इश्क़ वो दास्तान है जिसकी
इब्तिदा है न इंतिहा कोई

वक़्त ने लम्हा—लम्हा लूटा जिसे
ज़िन्दगी है या बेसवा कोई

मुद्दई हैं न दावेदार ही हम
कोई दावा न मुद्दआ कोई

हमने तो सब की ख़ैर माँगी थी
किसलिए हमसे हो ख़फ़ा कोई

हर क़दम फूँक—फूँक रखते हैं
हमको दे दे न बद्दुआ कोई

देस अपना ही हो गया परदेस
कोई मैहरम न आशना कोई

बात ‘साग़र’! ख़िज़ाँ की करते हो
है बहारों का भी पता कोई ?

११.
फिर तसव्वुर में वही नक़्श उभर आया है
सुबह का भूला हुआ शाम को घर आया है

जुस्तजू है मुझ अपनी तो उसे अपनी तलाश
मेरा साया ही मुझे ग़ैर नज़र आया है

यह मेरा हुस्न—ए—नज़र है के करिश्मा सका
ज़र्रे—ज़र्रे में मुझे नूर नज़र आया है

उसकी लहरों पे थिरकता है तेरा अक़्स—ए—जमील
वो जो दरया तेरे गाँओं से गुज़र आया है

हिज्र की रात! नया ढूँढ ले हमदम कोई
मैं तो चलता हूँ मेरा वक़्त—ए—सफ़र आया है

जब हुई उनसे मुलाक़ात अचानक ’साग़र’!
इक सितारा—सा नज़र वक़्त—ए—सहर आया है.
( बीसवीं सदी )

१२.
इरादे थे क्या और क्या कर चले
कि खुद को ही खुद से जुदा कर चले

अदा यूँ वो रस्म—ए—वफ़ा कर चले
क़दम सूए—मक़्तल उठा कर चले

ये अहल—ए—सियासत का फ़र्मान है
न कोई यहाँ सर उठा कर चले

उजाले से मानूस थे इस क़दर
दीए आँधियों में जला कर चले

करीब उन के ख़ुद मंज़िलें आ गईं
क़दम से क़दम जो मिला कर चले

जिन्हें रहबरी का सलीक़ा न था
सुपुर्द उनके ही क़ाफ़िला कर चले

किसी की निगाहों के इक जाम से
इलाज—ए—ग़म—ए—नातवाँ कर चले


ग़ज़ल कह के हम हजरते मीर को
ख़िराज़—ए—अक़ीदत अदा कर चले.

१३.
काश वो इक पल ही आ जाते आस के सूने आँगन में
रंग—बिरंगे फूल महकते सोच के सूने उपवन में

सूनी धरती पर शायद फिर आई है रुत फूलों की
खेतों —खेतों सरसों फूली, सिम्बल फूले वन—वन में

धरी रही पूजा की थाली व्यर्थ मेरा श्रृंगार गया
वे प्रीतम नहीं लौट के आए बिछुड़े थे जो सावन में

शहनाई के स्वर हैं घायल गीतों में संगीत नहीं
पहली—सी वह बात कहाँ है अब पायल की झन—झन में

सपनों के जो गाँव बसे थे आँख खुली तो उजड़ गए
पिघल गए अंतर—ज्वाला से ढले बदन जो कंचन में

जाने कितना और है बाक़ी जीवन का बनवास अभी
मन का पंछी बँधता जाए मोह—माया के बंधन में

जीवन के हर मोड़ पे कितनी साँसों का बलिदान हुआ
जाने कितने सूरज डूबे सुख—दुख की इस उलझन में

गुम—सुम—से हम दिल में इक तूफ़ान छुपाए बैठे थे
उनसे नयन मिले तो कौंधी बिजली—सी इक तन—मन में

उनसे कोई संबंध नहीं है फिर भी वे जब मिल जाएँ
इक तेज़ी —सी आ जाती है `सागर’! दिल की धड़कन में.

5 comments:

Ahmad Ali Barqi Azmi said...

है बहुत पुर लुत्फ साग़र का कलामो
हर ग़ज़ल है बादह ए इशरत का जाम
है द्विजिन्दर द्विज का यह हुस्ने अमल
बाप का रौशन किया है जिसने नाम
डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी
नई दिल्ली-110025

Ahmad Ali Barqi Azmi said...

غزل
منوھر شرما "ساغر" پالم پوری
جنگل میں محو خواب ھوا میں نمی سی ھے
پیڑوں میں گنگناتی ھوئی خامشی سی ھے
چٹان ھے وہ جس کو سنائی نہ دے سکے
جھرنوں کے شور میں جو مدھر راگنی سی ھے
اڑ کر جو اس کے گاؤں سے آتی ھے صبح وشام
اس دھول میں بھی یارو مھک پھول کی سی ھے
اوڑھے ھوئے ھیں برف کی چار تو کیا ھوا
ان پربتوں کے پیچھے کھیں روشنی سی ھے
کانٹوں سے دل کو کوئی گلا اس لئے نھیں
روز ازل سے اس میں خلش دائمی سی ھے
ھیں کتنے بے نیاز بھار و خزاں سے ھم
یہ زندگی ھمارے لئے دل لگی سی ھے
ساغر غموں کی دھوپ نے جھلسا دیا ھمیں
پھر بھی دل و نظر میں عجب تازگی سی ھے

Ahmad Ali Barqi Azmi said...

حسن فطرت کا ھے مظھر یہ غزل
جس میں ساغر نے کھلائے ھیں کنول
ھے دویجندر دویج کی یہ اک پیشکش
جس سے ظاھر ان کا ھے حسن عمل

ڈاکٹر احمد علی برقی اعظمی
ذاکر نگر، نئی دھلی

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

इन सबके सामने........मेरी तो बोलती बंद है.......अच्छे को अच्छा कहना ही होता है.........लेकिन गहरे को क्या कहे हम.......यही सोच रहे हैं.........!!

madhur said...

श्री मनोहर शर्मा ‘सागर’ पालमपुरी जी की शायरी पढ़ी...
और पढ़ता चला गया...बार-बार पढ़ा...हर ग़ज़ल...हर शे’र
में ड़ूबता चला गया...मन की गहराईयों से टकरा कर
उस शायरी की जो सदाएं लौटी...वो इक ग़ज़ल की शक्ल
में कुछ यूं ढ़लीं...

लगे जब जिस्म पे खंजर चुभे जब रूह में नश्तर
लबों से आह भी ‘सागर’ के निकली तो ग़ज़ल बन कर

मज़ा तो शे’र का तब है अगर महसूस हो पढ़ कर
कि औज़े-फ़न किसी का है गया गागर में भर ‘सागर’

किसी शायर की गहराई परख पाना नहीं आसां
हुनर ये सीखना तुझ को तो आ फिर चल उठा ‘सागर’

दिखाई दे रहे सागर ज़मीं पे और भी लेकिन
है ‘सागर’ बस वही जो है तेरे अन्दर मेरे अन्दर

किनारे तक पहुंचना तो ‘मधुर’ लगता है कश्ती को
‘मनोहर’ काम कर के ही करे वो पार भव‘सागर’

...Dr. M.B.Sharma `Madhur'