Wednesday, June 25, 2008

साग़र साहेब




















मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी
(25 जनवरी, 1929 — 30 अप्रैल, 1996)

परिचय
नाम: मनोहर शर्मा
उपनाम: ’साग़र’ पालमपुरी
जन्म : 25 जनवरी,1929
जन्मस्थान : गाँव झुनमान सिंह , तहसील शकरगढ़ (अब पाकिस्तान)
निधन : 30 अप्रैल,1996, स्थाई निवास , अशोक लाज , मारण्डा—पालमपुर (हिमाचल प्रदेश)
रचनाओं के लिए संपर्क सूत्र : द्विजेन्द्र ‘द्विज’ dwij.ghazal@gmail.com
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१.
अपने ही परिवेश से अंजान है
कितना बेसुध आज का इन्सान है

हर डगर मिलते हैं बेचेहरा—से लोग
अपनी सूरत की किसे पहचान है

भावना को मौन का पहनाओ अर्थ
मन की कहने में बड़ा नुकसान है

चाँद पर शायद मिले ताज़ा हवा
क्योंकि आबादी यहाँ गुंजान है

कामनाओं के वनों में हिरण—सा
यह भटकता मन चलायेमान है

नाव मन की कौन —से तट पर थमे
हर तरफ़ यादों का इक तूफ़ान है

आओ चलकर जंगलों में जा बसें
शह्र की तो हर गली वीरान है

साँस का चलना ही जीवन तो नहीं
सोच बिन हर आदमी बेजान है

खून से ‘साग़र’! लिखेंगे हम ग़ज़ल
जान में जब तक हमारी जान है.
(सारिका)

२.











जंगल है महव—ए— ख़्वाब हवा में नमी —सी है
पेड़ों पे गुनगुनाती हुई ख़ामुशी —सी है

चट्टान है वो जिसको सुनाई न दे सके
झरनों के शोर में जो मधुर रागिनी सी है

उड़कर जो उसके गाँव से आती है सुबह—ओ—शाम
उस धूल में भी यारो महक फूल की— सी है

लगता है हो गया है शुरू चाँद का सफ़र
आँचल पे धौलाधार के कुछ चाँदनी —सी है

ओढ़े हुए हैं बर्फ़ की चादर तो क्या हुआ
इन पर्वतों के पीछे कहीं रौशनी —सी है

काँटों से दिल को कोई गिला इसलिए नहीं
रोज़—ए—अज़ल से इसमें ख़लिश दायिमी —सी है

हैं कितने बेनियाज़ बहार—ओ—ख़िज़ाँ से हम
य्ह ज़िन्दगी हमारे लिए दिल्लगी —सी है

साग़र ग़मों की धूप ने झुलसा दिया हमें
फिर भी दिल—ओ—नज़र में अजब ताज़गी—सी है.

३.









ख़ंजर—ब—क़फ़ है साक़ी तो साग़र लहू—लहू
है सारे मयकदे ही का मंज़र लहू—लहू

शायद किया है चाँद ने इक़दाम—ए—ख़ुदकुशी
पुरकैफ़ चाँदनी की है चादर लहू—लहू

हर—सू दयार—ए—ज़ेह्न में ज़ख़्मों के हैं गुलाब
है आज फ़स्ल—ए—गुल का तसव्वुर लहू—लहू

अहले—जफ़ा तो महव थे ऐशो—निशात में
होते रहे ख़ुलूस के पैक़र लहू—लहू

लाया है रंग ख़ून किसी बेक़ुसूर का
देखी है हमने चश्म—ए—सितमगर लहू—लहू

डूबी हैं इसमे मेह्र—ओ—मरव्वत की कश्तियाँ
है इसलिए हवस का समंदर लहू—लहू

क्या फिर किया गया है कोई क़ैस संगसार?
वीरान रास्तों के हैं पत्थर लहू—लहू

‘साग़र’!सियाह रात की आगोश के लिए
सूरज तड़प रहा है उफ़क़ पर लहू—लहू.


४.













खा गया वक्त हमें नर्म निवालों की तरह
हसरतें हम पे हसीं ज़ोहरा—जमालों की तरह

रूह की झील में चाहत के कँवल खिलते हैं
किसी बैरागी के पाक़ीज़ा ख़यालों की तरह

थे कभी दिल की जो हर एक तमन्ना का जवाब
आज क्यों ज़ेह्न में उतरे हैं सवालों की तरह ?

साथ उनके तो हुआ लम्हों में सालों का गुज़र
उनसे बिछुड़े तो लगे लम्हे भी सालों की तरह

ज़ख़्म तलवार के गहरे भी हों भर जाते हैं
लफ़्ज़ तो दिल में उतर जाते हैं भालों की तरह

हम समझते रहे कल तक जिन्हें रहबर अपने
पथ से भटके वही आवारा ख़्यालों की तरह

इनको कमज़ोर न समझो कि किसी रोज़ ये लोग
मोड़ देंगे इसी शमशीर को ढालों की तरह

फूल को शूल समझते हैं ये दुनिया वाले
बीते इतिहास के विपरीत हवालों की तरह

आफ़रीं उनपे जो तौक़ीर—ए—वतन की ख़ातिर
दार पर झूल गए झूलने वालों की तरह

हम भरी भीड़ में हैं आज भी तन्हा—तन्हा
अह्द—ए—पारीना के वीरान शिवालों की तरह

ग़म से ना—आशना इंसान का जीना है फ़ज़ूल
ज़ीस्त से लिपटे हैं ग़म पाँवों के छालों की तरह

अब कन्हैया है न हैं गोपियाँ ब्रज में ‘साग़र’!
हम हैं फ़ुर्क़तज़दा मथुरा के गवालों की तरह.



कुछ और ग़ज़लें...







१४.
है कितनी तेज़ मेरे ग़मनवाज़ मन की आँच
हो जिस तरह किसी तपते हुए गगन की आँच

जहाँ से कूच करूँ तो यही तमन्ना है
मेरी चिता को जलाए ग़म—ए—वतन की आँच

कहाँ से आए ग़ज़ल में सुरूर—ओ—सोज़ो—गुदाज़?
हुई है माँद चराग़—ए—शऊर—ए—फ़न की आँच

उदास रूहों में जीने की आरज़ू भर दे
लतीफ़ इतनी है ‘साग़र’! मेरे सुख़न की आँच.

१५.
छोड़े हुए गो उसको हुए है बरस कई
लेकिन वो अपने गाँव को भूला नहीं अभी

वो मदरिसे,वो बाग़, वो गलियाँ ,वो रास्ते
मंज़र वो उसके ज़ेह्न पे हैं नक़्श आज भी

मिलते थे भाई भाई से, इक—दूसरे से लोग
होली की धूम— धाम हो या ईद की ख़ुशी

मज़हब का था सवाल न थी ज़ात की तमीज़
मिल—जुल के इत्तिफ़ाक से कटती थी ज़िन्दगी

लाया था शहर में उसे रोज़ी का मसअला
फिर बन के रह गया वही ज़ंजीर पाँओं की

है कितनी बेलिहाज़ फ़िज़ा शह्र की जहाँ
ना—आशना हैं दोस्त तो हमसाये अजनबी

माना हज़ारों खेल तमाशे हैं शह्र में
‘साग़र’! है अपने गाँव की कुछ बात और ही.













१६.
ख़िज़ाँ के दौर में हंगामा—ए—बहार थे हम
ख़ुलूस—ओ—प्यार के मौसम की यादगार थे हम

चमन को तोड़ने वाले ही आज कहते हैं
वो गुलनवाज़ हैं ग़ारतगर—ए—बहार थे हम

शजर से शाख़ थी तो फूल शाख़ से नालाँ
चमन के हाल—ए—परेशाँ पे सोगवार थे हम

हमें तो जीते —जी उसका कहीं निशाँ न मिला
वो सुब्ह जिसके लिए महव—ए—इंतज़ार थे हम

हुई न उनको ही जुर्रत कि आज़माते हमें
वग़र्ना जाँ से गुज़रने को भी तैयार थे हम

जो लुट गए सर—ए—महफ़िल तो क्या हुआ ‘साग़र’!
अज़ल से जुर्म—ए—वफ़ा के गुनाहगार थे हम.

१७.
अपनी मंज़िल से कहीं दूर नज़र आता है
जब मुसाफ़िर कोई मजबूर नज़र आता है

घुट के मर जाऊँ मगर तुझ पे न इल्ज़ाम धरूँ
मेरी क़िस्मत को ये मंज़ूर नज़र आता है

आज तक मैंने उसे दिल में छुपाए रक्खा
ग़म—ए—दुनिया मेरा मश्कूर नज़र आता है

है करिश्मा ये तेरी नज़र—ए—करम का शायद
ज़र्रे—ज़र्रे में मुझे नूर नज़र आता है

उसकी मौहूम निगाहों में उतर कर देखो
उनमें इक ज़लज़ला मस्तूर नज़र आता है

खेल ही खेल में खाया था जो इक दिन मैंने
ज़ख़्म ‘साग़र’! वही नासूर नज़र आता है .

१८.
बेसहारों के मददगार हैं हम
ज़िंदगी ! तेरे तलबगार हैं हम

रेत के महल गिराने वालो
जान लो आहनी दीवार हैं हम

तोड़ कर कोहना रिवायात का जाल
आदमीयत के तरफ़दार हैं हम

फूल हैं अम्न की राहों के लिए
ज़ुल्म के वास्ते तलवार हैं हम

बे—वफ़ा ही सही हमदम अपने
लोग कहते हैं वफ़ादार हैं हम

जिस्म को तोड़ कर जो मिल जाए
ख़ुश्क रोटी के रवादार हैं हम

अम्न—ओ—इन्साफ़ हो जिसमें ‘साग़र’!
उस फ़साने के परस्तार हैं हम.

१९.
कितना यहाँ के लोगों में है प्यार देखना
इन वादियों में आ के तो इक बार देखना

देते हैं किस क़दर ये दिलो—ओ—रूह को सुकून
खिड़की से चमकते हुए कोहसार देखना

बरसात खत्म हो गई लो धान पक गए
आया है फिर से ‘सैर’ का त्योहार देखना

हर रहगुज़र पे सुर्ख़ गुलाबों का है हुजूम
मेरे वतन के महकते गुलज़ार देखना

बजता है बावली पे गगरियों का जलतरंग
चंचल हवाएँ गाती हैं मल्हार देखना

सदियों पुराने चित्र ये कितने सजीव हैं
महलों के गिर चुके दर—ओ—दीवार देखना

रुत फागुनी है राहों में फिर खिल उठे गुलाब
मेलों में अप्सराओं के सिंगार देखना

ऐ काश! वो भी उतरें समन्दर में एक बार
आता है जिनको तट से ही मंझधार देखना

वो दोस्तों पे जान छिड़कता है किस तरह
‘साग़र’ को आ़ज़मा के मेरे यार देखना.
२०.
एक वो तेरी याद का लम्हा झोंका था पुरवाई का
टूट के नयनों से बरसा है सावन तेरी जुदाई का

तट ही से जो देख रहा है लहरों का उठना गिरना
उसको अन्दाज़ा ही क्या है सागर की गहराई का

कभी—आस की धू्प सुनहरी, मायूसी की धुंध कभी
लगता है जीवन हो जैसे ख़्वाब किसी सौदाई का

अंगारों के शहर में आकर मेरी बेहिस आँखों को
होता है एहसास कहाँ अब फूलों की राअनाई का

सुबहें निकलीं,शामें गुज़रीं, कितनी रातें बीत गईं
‘साग़र’! फिर भी चाट रहा है ज़ह्र हमें तन्हाई का.

२१.
दरअस्ल सबसे आगे जो दंगाइयों में था
तफ़्तीश जब हुई तो तमाशाइयों में था

हमला हुआ था जिनपे वही हथकड़ी में थे
मुजरिम तो हाक़िमों के शनासाइयों में था

उस दिन किसी अमीर के घर में था कोई जश्न
बेरब्त एक शोर—सा शहनाइयों में था

हैराँ हूँ मेरे क़त्ल की साज़िश में था शरीक़
वो शख़्स जो कभी मेरे शैदाइयों में था

शोहरत की इन्तिहा में भी आया न था कभी
‘साग़र’!वो लुत्फ़ जो मेरी रुस्वाइयों में था.
२२.
कैसा मेरे शऊर ने धोका दिया मुझे
फिर ख़्वाहिशों के जाल में उलझा दिया मुझे

मुझ को हिसार—ए—ज़ात से ख़ुद ही निकाल कर
इक हुस्न—ए—दिल फ़रेब ने ठुकरा दिया मुझे

नींद आ गई मुझे कभी काँटों की सेज पर
फूलों के लम्स ने कभी तड़पा दिया मुझे

इक संग—ए—मील—सा था मगर कामनाओं ने
रुसवाइयों के जाल में उलझा दिया मुझे

गुमनामियों की गर्द में खोया हुआ था मैं
तेरे बदन के क़र्ब ने चमका दिया मुझे

‘साग़र’! वफ़ा की तुंद हवाओं ने आख़िरश
अर्ज़—ओ—समा में धूल—सा बिखरा दिया मुझे.

२३.
गई हैं रूठ कर जाने कहाँ वो चाँदनी रातें
हुआ करती थीं तुम से जब वो पनघट पर मुलाक़ातें

ये बोझल पल जुदाई के ये फ़ुरक़त की स्याह रातें
महब्बत में मुक़द्दर ने हमें दी हैं ये सौग़ातें

पुरानी बात है लेकिन तुम्हें भी याद हो शायद
बहारों के सुनहरे पल महब्बत की हसीं रातें

यूँ ही रूठी रहोगी हम से अय जान—ए—ग़ज़ल कब तक
हक़ीक़त कब बनेंगी तुम से सपनों की मुलाक़ातें

मैं वो सहरा हूँ ‘साग़र’! जिस पे बिन बरसे गए बादल
न जाने किस समंदर पर हुई हैं अब वो बरसातें.



२४.
हर सम्त एक भीड़ —से फ़ैले हुए हैं लोग
लगता है जैसे टूट के बिखरे हुए हैं लोग

कहते नहीं अगर्चे किसी से ये दिल की बात
हर गाम इश्तहार—से चिपके हुए हैं लोग

हैं खुद से दूर ग़ैरों को अपनाएँ किस तरह ?
कुछ ऐसे अपने—आप से रूठे हुए हैं लोग

ये जानते हुए भी कि लुट जाएँगे वहाँ
फिर भी उसी सराए में ठहरे हुए हैं लोग

बेचेहरगी ने उनको बनाया है ख़ुदपरस्त
इन्सानियत की राह से भटके हुए हैं लोग

मुद्दत हुई गिरे थे यही आसमान से
और आज भी खजूर पर अटके हुए हैं लोग

मालूम क्या है राज़—ए—वजूद—ओ—अदम इन्हें
अपनी अना के शोर में बहरे हुए हैं लोग

चेह्रे धुआँ—धुआँ हैं तो दिल भी लहू—लहू
एहसास की सलीब पर लटके हुए हैं लोग

फूलों की जुस्तजू में हई काँटों से हमकिनार
इक हल तलब सवाल—से उलझे हुए हैं लोग

‘साग़र’! चला है उनके तआक़ुब में तू कहाँ ?
जो ज़िन्दगी की क़ैद से भागे हुए हैं लोग

—तआक़ुब—अनुसरण में, पीछे—पीछे.


२५.
सर्द हो जाएगी यादों की चिता मेरे बाद
कौन दोहराएगा रूदाद—ए—वफ़ा मेरे बाद

बर्ग—ओ—अशजार से अठखेलियाँ जो करती है
ख़ाक उड़ाएगी वो गुलशन की हवा मेरे बाद

संग—ए—मरमर के मुजसमों को सराहेगा कौन
हुस्न हो जाएगा मुह्ताज—ए—अदा मेरे बाद

प्यास तख़लीक़ के सहरा की बुझेगी कैसे
किस पे बरसेगी तख़ैयुल की घटा मेरे बाद !

मेरे क़ातिल से कोई इतना यक़ीं तो ले ले
क्या बदल जाएगा अंदाज़—ए—जफ़ा मेरे बाद ?

मेरी आवाज़ को कमज़ोर समझने वालो !
यही बन जाएगी गुंबद की सदा मेरे बाद

आपके तर्ज़—ए—तग़ाफ़ुल की ये हद भी होगी
आप मेरे लिए माँगेंगे दुआ मेरे बाद

ग़ालिब—ओ—मीर की धरती से उगी है ये ग़ज़ल
गुनगुनाएगी इसे बाद—ए—सबा मेरे बाद

न सुने बात मेरी आज ज़माना ‘साग़र’!
याद आएगा उसे मेरा कहा मेरे बाद.
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तख़लीक़—सृजन; तख़ैयुल—कल्पना ;तर्ज़—ए—तग़ाफ़ुल=उपेक्षा का ढंग
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२६.

हो सके तुझ से तो ऐ दोस्त! दुआ दे मुझको

तेरे काम आऊँ ये तौफ़ीक़ ख़ुदा दे मुझको

तेरी आवाज़ को सुनते ही पलट आऊँगा
हमनवा ! प्यार से इक बार सदा दे मुझको

तू ख़ता करने की फ़ितरत तो अता कर पहले
फिर जो आए तेरे जी में वो सज़ा दे मुझको

मैं हूँ सुकरात ज़ह्र दे के अक़ीदों का मुझे
ये ज़माना मेरे साक़ी से मिला दे मुझको

राख बेशक हूँ मगर मुझ में हरारत है अभी
जिसको जलने की तमन्ना हो हवा दे मुझको

रहबरी अहल—ए—ख़िरद की मुझे मंज़ूर नहीं
कोई मजनूँ हो तो मंज़िल का पता दे मुझको

तेरी आगोश में काटी है ज़िन्दगी मैंने
अब कहाँ जाऊँ? ऐ तन्हाई! बता दे मुझको


मैं अज़ल से हूँ ख़तावार—ए—महब्बत ‘साग़र’ !
ये ज़माना नया अन्दाज़—ए—ख़ता दे मुझको.
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तौफ़ीक़=सामर्थ्य; अक़ीदा= विश्वास,धर्म ,मत,श्रद्धा; अहल—ए— खिरद=बुद्धिमान लोग
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२७


रात कट जाये तो फिर बर्फ़ की चादर देखें
घर की खिड़की से नई सुबह का मंज़र देखें

सोच के बन में भटक जायें अगर जागें तो
क्यों न देखे हुए ख़्वाबों में ही खो कर देखें

हमनवा कोई नहीं दूर है मंज़िल फिर भी
बस अकेले तो कोई मील का पत्थर देखें

झूट का ले के सहारा कई जी लेते हैं
हम जो सच बोलें तो हर हाथ में ख़ंजर देखें

ज़िन्दगी कठिन मगर फिर भी सुहानी है यहाँ
शहर के लोग कभी गाँओं में आकर देखें

चाँद तारों के तसव्वुर में जो नित रहते हैं
काश ! वो लोग कभी आ के ज़मीं पर देखें

उम्र भर तट पे ही बैठे रहें क्यों हम ‘साग़र!’
आओ, इक बार समंदर में उतर कर देखें.

२८.
मालूम नहीं उनको ये मैं कौन हूँ , क्या हूँ
सहराओं के सन्नाटों में इक शोर—ए सदा हूँ

कितने ही मुसाफ़िर यहाँ सुस्ता के गये है
मैं मील के पत्थर —सा सर—ए—राह खड़ा हूँ

इक ख़्वाब—ए—शिकस्ता हूँ मैं फिर जुड़ नहीं सकता
माना कि कभी उनकी निगाहों में रहा हूँ

उस शहर—ए—निगाराँ में मैं लौट आया हूँ आख़िर
जो अहद किया था कभी अब भूल चुका हूँ

आवाज़ के पत्थर से न तुम तोड़ सकोगे
आईना नहीं यारो ! मैं गुम्बद की सदा हूँ

वो और थे जो ख़ाक हुए बर्क़—ए—नज़र से
मैं अपनी ही साँसों की हरारत से जला हूँ

जुगनू नहीं मुझको वो हथेली पे न रक्खे
जलता है जो तूफ़ाँ में वो मिट्टी का दिया हूँ

वो भूल गये हों मुझे ये हो नहीं सकता
‘साग़र’! मैं सदा जिनके ख़्यालों में रहा हूँ

२९.

वो महफ़िलें, वो शाम सुहानी कहाँ गई
मेह्र—ओ—वफ़ा की रस्म पुरानी कहाँ गई

कुंदन —सा जिस्म चाट गई मौसमों की आग
चुनरी वो जिसका रंग था धानी कहाँ गई

कहते हैं उस सराए में होटल है आजकल
पुरखों की वो अज़ीम निशानी कहाँ गई

इतने कटे हैं पेड़ कि बंजर हुई ज़मीन
नदियों की पुरख़राम रवानी कहाँ गई

खिलते थे कँवल जिसमें वो तालाब ख़ुश्क है
बदली वो जिससे मिलता था पानी कहाँ गई


मकर—ओ—रया के क़िस्से हैं सबकी ज़बान पर
उल्फ़त की पुर—ख़ुलूस कहानी कहाँ गई

‘साग़र’! ये आन पहुँचे हैं हम किस मुक़ाम पर
मुड़—मुड़ के देखते हैं जवानी कहाँ गई !

३०.
ज़र्द चेहरों पे क्यों पसीना है
ज़िन्दगी जेठ का महीना है

काश इक जाम ही उठाते वो
ग़म से लबरेज़ आबगीना है

खौफ़ तूफ़ान का उन्हें कैसा
जिनका मंझधार में सफ़ीना है

दिल अँगूठी—सा है मेरा जिसमें
आपकी याद इक नगीना है

उनको अमृत पिला रहे हैं आप
उम्र भर जिनको ज़ह्र पीना है

फ़ाक़ामस्तों से पूछिये तो सही
मुल्क़ में किस क़दर क़रीना है

अब तो तार—ए—नज़र ही ‘साग़र’!
ज़ख़्म—ए—एहसास हमको सीना है.

३१.
हाल—ए—दिल जिनसे कहने की थी आरज़ू
वो मिले तो हमीं से लगे हू—ब—हू

जिस्म के बन के भीतर ही था वो कहीं
जिसको ढूँढा किये दर—ब—दर , कू—ब—कू

करके इक बात ही रूह में आ बसा
कितनी दिलकश थी उस शख़्स की गुफ़्तगू

फूल यादों के जो सेह्न—ए—दिल में खिले
एक ख़ुश्बू —सी बिखरा गये चार सू

सुर्ख़ चेहरों में ‘साग़र’ ! न ढूँढो मुझे
मेरी ग़ज़लों में है मेरे दिल का लहू.


३२.
दिल के तपते सहरा में यूँ तेरी याद का फूल खिला
जैसे मरने वाले को हो जीवन का वरदान मिला

जिसके प्यार का अमृत पी कर सोचा था हो जायें अमर
जाने कहाँ गया वो ज़ालिम तन्हाई का ज़हर पिला

एक ज़रा —सी बात पे ही वो रग—रग को पहचान गई
दुनिया का दस्तूर यही है यारो! किसी से कैसा गिला

अरमानों के शीशमहल में ख़ामोशी , रुस्वाई थी
एक झलक पाकर हमदम की फिर से मन का तार हिला

सपने बुनते—बुनते कैसे बीत गये दिन बचपन के
ऐ मेरे ग़मख़्वार ! न मुझको फिर से वो दिन याद दिला

इन्सानों के जमघट में वो ढूँढ रहा है ‘साग़र’ को
अभी गया जो दिल के लहू से ग़ज़लों के कुछ फूल खिला.



३३.
दिल में यादों का धुआँ है यारो !
आग की ज़द में मकाँ है यारो !

हासिल—ए—ज़ीस्त कहाँ है यारो !
ग़म तो इक कोह—ए—गिराँ है यारो !

मैं हूँ इक वो बुत—ए—मरमर जिसके
मुँह में पत्थर की ज़बाँ है यारो !

नूर अफ़रोज़ उजालों के लिए
रौशनी ढूँढो कहाँ है यारो !

टिमटिमाते हुए तारे हैं गवाह
रात भीगी ही कहाँ है यारो !

इस पे होता है बहारों का गुमाँ
कहीं देखी है ये खिज़ाँ है यारो !

हम बहे जाते हैं तिनकों की तरह
ज़िन्दगी मील—ए—रवाँ है यारो

ढल गई अपनी जवानी हर चंद
दर्द—ए—उल्फ़त तो जवाँ है यारो

नीम—जाँ जिसने किया ‘साग़र’ को
एक फूलों की कमाँ है यारो!


३४.
है शाम—ए—इन्तज़ार अजब बेकली की शाम
इतनी उदास तो न हो यारब ! किसी की शाम

आई जो दिन ढले ही किसी बेवफ़ा की याद
शाम—ए—फ़िराक़ बन गई है बन्दगी की शाम

महरूमियों कई आग में तन्हा जला हूँ मैं
बीते भी युग मगर न हुई ज़िन्दगी की शाम

ओझल हुआ मैं उनकी नज़र से तो यूँ लगा
थी कितनी पुरसुकून वो उसकी गली शाम

फ़ितरत जुदा—जुदा है मिलें भी तो किस तरह
मैं सुबह हूँ ख़ुलूस की वो बेरुख़ी की शाम

अहल—ए—चमन ने सुबह—ए—मसर्रत के नाम से
बख़्शी है हमको यारो ! ग़म—ओ—बेबसी की शाम

मैं ख़ुद को भूल जाऊँ तो शयद मिले क़रार
मेरे नसीब में है कहाँ बेखुदी की शाम

कुछ इन्तज़ाम—ए—जाम करो अब तो हमदमो!
डसने लगी है रूह को फिर बेबसी की शाम

सपनों के गाँओं बस के उजड़ते चले गये
‘साग़र’ ! न मिल सकी मुझे इक भी ख़ुशी की शाम .

३५.
उमड़े हुए अश्कों को रवानी नहीं देता
अब हादसा भी कोई कहानी नहीं देता

तन्हाई के सहरा में हवा का कोई झोंका
बचपन की कोई याद पुरानी नहीं देता

ये वक़्त है ज़ालिम कि मेरे माँगने पर भी
लौटा के मुझे मेरी जवानी नहीं देता

हैरत है कि इस दौर में समझें जिसे अपना
वो ग़म के सिवा कोई निशानी नहीं देता

मशहूर थी जिस शहर की मेहमान नवाज़ी
प्यासों को वहाँ अब कोई पानी नहीं देता

‘साग़र’! है तमन्ना कि ग़ज़ल हम भी सुनायें
मौसम ही कोई शाम सुहानी नहीं देता .



३६.
कहाँ चला गया बचपन का वो समाँ यारो!
कि जब ज़मीन पे जन्नत का था गुमाँ यारो!

बहार—ए—रफ़्ता को ढूँढें कहाँ यारो!
कि अब निगाहों में यादों की है ख़िज़ाँ यारो!

समंदरों की तहों से निकल के जलपरियाँ
कहाँ सुनाती है अब हमको लोरियाँ यारो!

बुझा—बुझा —सा है अब चाँद आरज़ूओं का
है माँद—माँद मुरादों की कहकशाँ यारो!

उफ़क़ पे डूबते सूरज के खूँ की लाली है
ठहर गये हैं ख़लाओं के क़ारवाँ यारो!

भटक गये थे जो ख़ुदग़र्ज़ियों के सहरा में
हवस ने उनको बनाया है नीम जाँ यारो!



ग़मों के घाट उतारी गई हैं जो ख़ुशियाँ
फ़ज़ा में उनकी चिताओं का है धुआँ यारो!

तड़प के तोड़ गया दम हिजाब का पंछी
झुकी है इस तरह इख़लाक़ की कमाँ यारो!

ख़ुलूस बिकता है ईमान—ओ—सिदक़ बिकते हैं
बड़ी अजीब है दुनिया की ये दुकाँ यारो !

ये ज़िन्दगी तो बहार—ओ—ख़िज़ाँ का संगम है
ख़ुशी ही दायमी ,ग़म ही न जाविदाँ यारो !

क़रार अहल—ए—चमन को नसीब हो कैसे
कि हमज़बान हैं सैयाद—ओ—बाग़बाँ यारो!

हमारा दिल है किसी लाला ज़ार का बुलबुल
कभी मलूल कभी है ये शादमाँ यारो !

क़दम—क़दम पे यहाँ असमतों के मक़तल हैं
डगर—डगर पे वफ़ाओं के इम्तहाँ यारो!

बिरह की रात सितारे तो सो गये थे मगर
सहर को फूट के रोया था आसमाँ यारो!

मिले क़रार मेरी रूह को तभी ‘साग़र’!
मेरी जबीं हो और उनका हो आस्ताँ यारो!





३७.
नज़र नवाज़ बहारों के गीत गायेंगे
सुरूर—ओ—कैफ़ की दुनिया नई बसायेंगे

है ऐतमाद हमें अपने ज़ोर—ए—बाज़ू पर
कभी किसी का न अहसान हम उठायेंगे

मय—ए—वफ़ा का पियाला हर एक गुल हो जहाँ
वतन के बाग़ को वो मयकदा बनायेंगे

रहे हयात की तारीकियाँ मिटाने को
क़दम—क़दम पे उजालों के गीत गायेंगे

करेंगे राह—ए—महब्बत में जान तक क़ुर्बाँ
वफ़ा के फूल रग—ए—संग में खिलायेंगे

बुझा सकें न जिसे हादिसात के तूफ़ाँ
रह—ए—हयात में वो शमअ हम जलायेंगे

पड़ेगी माँद अगर शमअ—ए—आरज़ू—वफ़ा
तो आसमान से तारे भी तोड़ लायेंगे

हमारे दम से है ‘साग़र’! ये रौनक़—ए—महफ़िल
न हम हुए तो ये नग़्मे कहाँ से आयेंगे ?


३८.
हु्स्न—ए—चमन से ख़ाक— ए—मनाज़िर ही ले चलें
ज़ेह्नों में फ़स्ल—ए—गुल का तसव्वुर ही ले चलें

बीती रूतों की याद रहे दिल में बरक़रार
आँखों में हुस्न—ए—चश्म—ए गुल—ए—तर ही ले चलें

हम है ज़मीं की ख़ाक तो ऐ आसमाँ के चाँद
आँखों को एक बार ज़मीं पर ही ले चलें

पहुँचे हुए फ़क़ीर हैं शायद न फिर मिलें
उनसे कोई दुआ—ए—मयस्सर ही ले चलें

झुलसा न दे हमें कहीं तन्हाइयों की धूप
साथ अपने कोई हुस्न का पैकर ही ले चलें

देखा था हमने जो कभी बचपन के दौर में
ज़ेह्नों में ख़्वाब का वही मंज़र ही ले चले

सहरा—ए—ग़म की प्यास बुझाने के वास्ते
पलकों पे आँसुओं का समंदर ही ले चलें

साकी के इल्तिफ़ात का इतना तो पास हो
आए हैं मयकदे में तो साग़र ही ले चलें

जिस अजनबी से पहले मुलाक़ात तक न थी
अब सोचते हैं क्यों न उसे घर ही ले चलें

‘साग़र’ ! अगर नविश्ता—ए—क़िस्मत न मिल सके
सीने पे क्यों न सब्र का पत्थर ही ले चलें ?

…………………………………………………………………………
इल्तिफ़ात = कृपा, दया, इनायत
……………………………………………………………………



३९.

कोई आवारा हवा मुझको उड़ा ले जाये
या कोई लहर किनारे से उड़ा ले जाये

वो जहाँ भी हो मुझे याद तो करता होगा
कोई उस तक मेरा पैग़ाम—ए—वफ़ा ले जाये

है तमन्ना जिसे क़तरे से गौहर बनने की
उसको कब जाने कहाँ कोई हवा ले जाये

फूल जो आज शगुफ़्ता है उसे देख तो लो
जाने कल उसको कहाँ बाद—ए—सबा ले जाये

उसके इसरार को टालें भी कहाँ तक यारो !
अब जहाँ चाहे हमें दिल का कहा ले जाये

आशियाँ अपना न साहिल पे बनाओ ‘सागर’!
इस को सैलाब अचानक न बहा ले जाये.


४०.
तूफ़ानी शब , घोर अँधेरा , मंज़िल दूर , हवाएँ सर्द
ऐसे में जो घर से निकला था कोई फ़ौलादी मर्द

धूल चाटते नंगे जिस्मों को, पीठ से चिपके पेटों को
रंगों की पहचान ही क्या है सुर्ख़, सफ़ेद, हरा कि ज़र्द

आम इन्सान के ग़म में डूबी जो दिलकश तहरीर करे
इसको ही कहती है दुनिया जनता का सच्चा हमदर्द

चाहे कितनी उजली रक्खे चादर कोई गुनाहों की
पड़ ही जाती है दामन पर इक दिन रुस्वाई की गर्द

मेले में जो यार मिला था आज न जाने है वो कहाँ
अब तो हमें ही सहना होगा तन्हा तन्हाई का दर्द

मैंने, तूने, उसने जो महसूस किया तन्हाई में
हर चेहरे से झलक रहा है मेरा तेरा उसका दर्द

भटक रहा है आज भी बचपन और शबाब की गलियों में
जाने क्या गुल और खिलायेगा ये दिल आवारागर्द

उसने इक—इक शेर की खातिर ख़ून जलाया है दिल का
यारो! ‘साग़र’ से मत पूछो क्यों है उसका चेहरा ज़र्द .

41.

कितनी हसीं है शाम सुनाओ कोई ग़ज़ल
गर्दिश में आये जाम सुनाओ कोई ग़ज़ल

लौट आयें जिससे प्यार की ख़ुश्बू लिए हुए
रंगीन सुबह—ओ—शाम सुनाओ कोई ग़ज़ल

घूँघट उठा के फूलों का फिर प्यार से हमें
ये रुत करे सलाम सुनाओ कोई ग़ज़ल

जो कम करे फ़िराक़ज़दा साअतों का बोझ
ले ग़म से इन्तक़ाम सुनाओ कोई ग़ज़ल

रुत कोई भी हो इतना है ग़म अहल—ए—सुख़न का
शे`र—ओ—सुख़न है काम सुनाओ कोई ग़ज़ल

जिसका इक एक शे`र हो ख़ु्द ही इलाज—ए—ग़म
जो ग़म करे तमाम सुनाओ कोई ग़ज़ल


जंगल हैं बेख़ुदी के जो शहर—ए—अना से दूर
कर लें वहीं क़याम सुनाओ कोई ग़ज़ल

होंठों पे तन्हा चाँद के आया है प्यार से
‘साग़र’! तुम्हारा नाम सुनाओ कोई ग़ज़ल.





साअतों=क्षणों


४२.

वो बस के मेरे दिल में भी नज़रों से दूर था
दुनिया का था क़ुसूर न उसका क़ुसूर था

हम खो गये थे ख़ुद ही किसी की तलाश में
ये हादिसा भी इश्क़ में होना ज़रूर था

गर्दन झुकी तो थी तेरे दीदार के लिये
देखा मगर तो शीशा—ए—दिल चूर—चूर था

बदली जो रुत तो शाम—ओ—सहर खिलखिला उठे
मंज़र वो दिलनवाज़ ख़ुदा का ज़हूर था

उसके बग़ैर कुछ भी दिखाई दे मुझे
कैसे कहूँ वो मेरी निगाहों का नूर था

कल तक तो समझते थे गुनहगार वो मुझे
क्यूँ आज कह रहे हैं कि मैं बेक़ुसूर था

जो मुझको क़त्ल करके सुकूँ से न सो सका
दुश्मन तो था ज़रूर मगर बा—शऊर था

साग़र वो कोसते हैं ज़माने को किसलिए
उनको डुबो गया जो उन्हीं का ग़रूर था.

४३.
समझ के रिन्द न महफ़िल में तू उछाल मुझे
मैं गिर न जाऊँ कहीं साक़िया! सँभाल मुझे

तेरी गली से गुज़रता हूँ मूँद कर आँखें
कि बाँध ले न कहीं तेरा मोह जाल मुझे

नज़र तो क्या मैं तेरी रूह से उतर जाऊँ
हया के रेशमी गुंजल से तो निकाल मुझे

मेरे जुनून का कारन तो पूछता मुझसे
गया जो वहम के अंधे कुएँ में डाल मुझे

नक़ाब रुख़ से उठा, सामने तो आ इक पल
हूँ तेरी दीद का तालिब न कल पे टाल मुझे

वो ख़्वाब हूँ जो बिखर जाएगा सहर होते
तुझे क़सम है निगाहों में यूँ न पाल मुझे

मेरी तहों में मिलेंगे ख़ुलूस के मोती
मैं इक वफ़ा का समंदर हूँ तू खँगाल मुझे

बड़ी लतीफ़ थी उसके बदन की धूप मगर
जला ही डालेगी ऐसा न था ख़्याल मुझे

गो एक पल ही वो ओझल मेरी नज़र से हुआ
लगा कि उससे मिले हो चुके हैं साल मुझे

मेरे शफ़ीक़, मेरे हमनवा, मेरे रहबर!
अना की भूल भुलैयाँ से तू निकाल मुझे

ये उसकी याद का आसेब तो नहीं ‘साग़र’!
कि खुल के साँस भी लेना है अब मुहाल मुझे.

ख़ुलूस=निष्कपटता; सरलता,सादगी; शफ़ीक़=कृपालु; आसेब=प्रेतबाधा;

४४.

ग़म—ए—अंजाम—ए—महब्बत से छुड़ाया जाये
दिल—ए—मजरूह को फिर होश में लाया जाये

शब—ए—फ़ुर्क़त के अँधेरों को मिटाने के लिए
दिया अश्कों का सरे शाम जलाया जाये

वो जो कहते थे कि सावन में मिलेंगे हम से
उनका वादा उन्हें फिर याद दिलाया जाये

ये नदी तट, ये जवाँ रुत, ये सुनहरी शामें
कैसे उस जान—ए—तमन्ना को बुलाया जाये ?

आओ सूखे हुए कुछ फूल इकठ्ठे कर लें
इस बहाने ही गई रुत को बुलाया जाये


आस के गगन पे पंछी —सा उसे उड़ने दो
दिल पे महरूमी का क्यों तीर चलाया जाये

प्यास जुग—जुग की ये मिटती नहीं अमृत से भी
हम वो प्यासे हैं जिन्हें ज़ह्र पिलाया जाये

छेड़ कर फिर से किसी भूली हुई याद की धुन
दिल के सोये हुए ज़ख़्मों को जगाया जाये

क्या करें अपना मुक़द्दर तो यही है ‘साग़र’!
उम्र भर दर्द का इक बोझ उठाया जाये.

महरूमी= वंचित होने की स्थिति


४५.
हम नशीं ही उठ गये तो हम कहाँ रह जायेंगे
इस नगर में एक दिन ख़ाली मकाँ रह जायेंगे

इम्तियाज़—ए—आमद—ओ—मक़सूद ही मिट जायेगा
सजदावर कोई न होगा आस्ताँ रह जायेंगे

फूल खिलते थे ख़ुलूस—ओ—सिदक़ के जिसमें कभी
उन ज़मीनों को तरसते आस्माँ रह जायेंगे

गर यूँ ही होती रही अहल—ए—हवस में साज़िशें
वादियों में चंद उजड़े आशियाँ रह जायेंगे

लाख हो जाये उन्हें अपनी खता का ऐतराफ़
फ़ासिले फिर भी दिलों के दरमियाँ रह जायेंगे

दुश्मनों की चार सू इक भीड़ —सी होगी मगर
फिर भी उसमें कुछ हमारे मेह्रबाँ रह जायेंगे

हीर—राँझे की महब्बत याद आयेगी किसे
इश्क़ की राहों में ख़ाली इम्तेहाँ रह जायेंगे

मर के भी ‘साग़र’! न दुनिया भूल पायेगी हमें
आसमाँ में हम मिसाले कहकशाँ रह जायेंगे.
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ऐतराफ़=स्वीकृति
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४६.

सहर का रंग गुलों का निखार है तुझ से
चमन में आमद—ए—फ़स्ल—ए—बहार है तुझ से

चराग—ए—बज़्म तेरे ही लिये फ़िरोज़ाँ है
फ़ज़ा—ए—शेर—ओ—सुखन साज़गार है तुझ से


तेरे बग़ैर हैं वीरान वादियाँ दिल की
ख़िज़ाँ—नसीब दिलों को क़रार है तुझ से

तेरे ही दम से हैं आबाद शाद मयख़ाने
नज़र— नज़र में सुरूर—ओ—ख़ुमार है तुझ से

मताए—हुस्न—ए—बहाराँ है कितनी दिल आवेज़
ये उम्र भर ऐ खुदा ! आश्कार है तुझ से

तुझी से ख़ाना—ए—दिल में है रौशनी ऐ खुदा!
मेरी नज़र में खिज़ाँ भी बहार है तुझ से .

४७.
परदेस चला जाये जो दिलबर तो ग़ज़ल कहिये
और ज़ेह्न हो यादों से मुअत्तर तो ग़ज़ल कहिये

कब जाने सिमट जाये वो जो साया है बेग़ाना
जब अपना ही साया हो बराबर तो ग़ज़ल कहिये

दिल ही में न हो दर्द तो क्या ख़ाक ग़ज़ल होगी
आँखों में हो अश्कों का समंदर तो ग़ज़ल कजिये

हम जिस को भुलाने के लिये नींद में खो जायें
आये वही ख़्वाबों में जो अक्सर तो ग़ज़ल कहिये

फ़ुर्क़त के अँधेरों से निकलने के लिये दिल का
हर गोशा हो अश्कों से मुनव्वर तो ग़ज़ल कहिये

ओझल जो नज़र से रहे ताउम्र वही हमदम
जब सामने आये दम—ए—आख़िर तो ग़ज़ल कहिये

अपना जिसे समझे थे उस यार की बातों से
जब चोट अचानक लगे दिल पर तो ग़ज़ल कहिये

क्या गीत जनम लेंगे झिलमिल से सितारों की
ख़ुद चाँद उतर आये ज़मीं पर तो ग़ज़ल कहिये

अब तक के सफ़र में तो फ़क़त धूप ही थी ‘साग़र’!
साया कहीं मिल जाये जो पल भर तो ग़ज़ल कहिये.



४८.

अब क्या बताएँ क्या हुए चिड़ियों के घौंसले
तूफ़ाँ की नज़्र हो गए चिड़ियों के घौंसले

हर घर के ही दरीचों छतों में छुपे हैं साँप
महफ़ूज़ अब नहीं रहे चिड़ियों के घौंसले

पीपल के उस दरख़्त के कटने की देर थी
आबाद फिर न हो सके चिड़ियों के घौंसले

जब से हुए हैं सूखे से खलिहान बे—अनाज
लगते हैं कुछ उदास— से चिड़ियों के घौंसले

बढ़ता ही जा रहा है जो धरती पे दिन—ब—दिन
उस शोर—ओ—गुल में खो गये चिड़ियों के घौंसले

पतझड़ में कुछ लुटे तो कुछ उजड़े बहार में
सपनों की बात हो गये चिड़ियों के घौंसले

बनने लगे हैं जब से मकाँ कंकरीट के
तब से हैं दर—ब—दर हुए चिड़ियों के घौंसले

तारीख़ है गवाह कि फूले —फले बहुत
जो आँधियों से बच गए चिड़ियों के घौंसले

जब बज उठा शह्र की किसी मिल का सायरन
‘साग़र’ को याद आ गये चिड़ियों के घौंसले.

४९.
जिसको पाना है उसको खोना है
हादिसा एक दिन ये होना है

फ़र्श पर हो या अर्श पर कोई
सब को इक दिन ज़मीं पे होना है

चाहे कितना अज़ीम हो इन्साँ
वक़्त के हाथ का खिलोना है

दिल पे जो दाग़ है मलामत का
वो हमें आँसुओं से धोना है

चार दिन हँस के काट लो यारो!
ज़िन्दगी उम्र भर का रोना है

छेड़ो फिर से कोई ग़ज़ल ‘साग़र’!
आज मौसम बड़ा सलोना है.

५०.
हद्द—ए—नज़र तक क्या है देख!
अश्कों का दरिया है देख!

अन्दर से बाहर तो आ
कितनी खुली हवा है देख!

माली! तेरे गुलशन की
बदली हुई फ़िज़ा है देख!

इन्सानों के जमघट में
हर कोई तन्हा है देख!

सच तो कह लेकिन सच की
कितनी सख़्त सज़ा है देख!

सूरज के पहलू में भी
छाई हुई घटा है देख!

ग़म से क्यूँ घबराता है
तेरे साथ ख़ुदा है देख!

तेरा अपना साया भी
तुझ से आज ख़फ़ा है देख!

‘साग़र’! बंद दरीचे से
आई एक सदा है देख!

५१.
थी आरज़ू कि ख़ूब हँसायेगी ज़िन्दगी
सोचा न था कि इतना रुलायेगी ज़िन्दगी

दामन छुड़ा के इससे कहाँ जायेगा बशर ?
हाथ अपने हर क़दम पे दिखायेगी ज़िन्दगी

जिन में नहीं है दम कि करें इसका सामना
उन बुज़दिलों को खूब सतायेगी ज़िन्दगी

इन्सानियत के वास्ते क़ुर्बान कर इसे
दामन के सारे दाग़ मिटायेगी ज़िन्दगी

इक ख़्वाब ने ही नींद से महरूम कर दिया
अब और कितने ख़्वाब दिखायेगी ज़िन्दगी

रोके से रुक सकेगी न गर्दिश नसीब की
यूँ तो कई फ़रेब दिखायेगी ज़िन्दगी

वो दिन भी थे कि लगती थी फ़स्ले बहार —सी
वैसी कभी न लौट के आयेगी ज़िन्दगी

‘सागर’! गुज़ार दे इसे सच की तलाश में
यूँ तो किसी भी काम न आयेगी ज़िन्दगी.

५२.
ख़ून—ए—हसरत से तेरा रंग निखारा जाए
ज़ुल्फ़—ए—हस्ती तुझे इस तरह सँवारा जाए

सुबह हुई शाम ढली और यूँ ही शब गुज़री
वक़्ते—रफ़्ता तुझे अब कैसे पुकारा जाए?

मौसम—ए—गुल हो फ़ज़ाओं में महक हो हर सू
फिर तसव्वुर में कोई नक़्श उभारा जाए

गुनहगारों को सज़ा देने चले हो लेकिन
देख लेना कोई मासूम न मारा जाए

शाम हो जाए तो मयखाने का दरवाज़ा खुले
फिर ग़म—ए—ज़ीस्त को शीशे में उतारा जाए

हम मुसाफ़िर हैं तो ये जग है सराये ‘सागर’!
क्यों न मिल—जुल के यहाँ वक्त गुज़ारा जाए?

५३.
बोझल है कितनी शाम—ए—जुदाई तेरे बग़ैर
दुनिया लगे है दर्द की खाई तेरे बग़ैर

यूँ भी हमारी जान पे बन आई तेरे बग़ैर
इक साँस भी न चैन की आई तेरे बग़ैर

तेरे बग़ैर सूनी है ख़्वाबों की अंजुमन
महशर लगे है सारी ख़ुदाई तेरे बग़ैर

ले दे इक तू ही तो था सरमाया—ए—हयात
थी और क्या हमारी कमाई तेरे बग़ैर

तुम क्या गये कि रूठ गया वो भी साथ—साथ
दुनिया है अब नसीब—ए—दुहाई तेरे बग़ैर

गो अब के भी चमन की फ़जाओं पे था निखार
लेकिन हमें बहार न भाई तेरे बग़ैर

कलियाँ चटक रही थीं हवाओं में था सुरूर
कोई फ़ज़ा भी रास न आई तेरे बग़ैर

अपना रफ़ीक़, अपना मेह्रबान—ओ—ग़मगुसार
इक भी दिया न हम को दिखाई तेरे बग़ैर

क़ैद—ए—ग़म—ए—हयात से ‘साग़र’! तू ही बता
कैसे मिलेगी हम को रिहाई तेरे बग़ैर .

५४.
लाख गोहर फ़िशानियाँ होंगी
हम न होंगे कहानियाँ होंगी

कैसे पायेंगे हम पता अपना
ग़म की वो बेकरानियाँ होंगी

टूटे महराब गिरी दीवारें
मंदिरों की, निशानियाँ होंगी

अपना साया भी अजनबी होगा
वक़्त की ज़ुल्मरानियाँ होंगी

और होगा भी क्या महब्बत में
हाँ, मगर बदगुमानियाँ होंगी

आरज़ूओं की भीड़ में ‘साग़र’!
ज़ख़्म ख़ुर्दा जवानियाँ होंगी.

५५.
राह—ए—वफ़ा में नाम कमाने का वक़्त है
अपने लहू में आप नहाने का वक़्त है

तक़्दीस—ओ—एहतराम—ए—महब्बत के वास्ते
अहल—ए—जफ़ा के नाज़ उठाने का वक़्त है


जिनसे थी रहबरी की तवक़्क़ो हमें कभी
उन रहबरों को राह दिखाने का वक़्त है

ग़मगीन हो न जायें कहीं वो भी इसलिये
अपनों से दिल के ज़ख्म छुपाने का वक़्त है

अपनी तलाश के लिए सहरा—ए—फ़िक्र में
शेर—ओ—सुख़न के फूल खिलाने का

साये तवील हो गये फिर शाम ढल चली
अब शमअ—ए—इन्तज़ार जलाने का वक़्त है

ऐ बुलबुलो ! सुनो तो ख़िज़ाँ की पुकार को
गुलशन से अब बहार के जाने का वक़्त है

टकरा के जिन से चूर हुए आईने कई
उन पत्थरों को फूल बनाने का वक़्त है

बसते हैं जिन की गोद में पैकर ख़ुलूस के
उन वादियों में जा के न आने का वक़्त है

जागो ! सहर क़रीब है मदहोश मयकशो!
सँभलो! कि अब तो होश में आने का वक़्त है

‘साग़र’! हविस के सहरा की जलती फ़ज़ाओं में
सब्र—ओ—सुकूँ के शह्र बसाने का वक़्त है.
तक़्दीस—ओ—एहतराम—ए—महब्बत=प्रेम की पवित्रता और सम्मान ;
अहल—ए—जफ़ा=अत्याचारी
oooooooooooooooooo

साग़र साहेब की और ग़ज़लें

५.
अर्ज़—ओ—समा में बर्क़—सा लहरा गया हूँ मैं
हर सिम्त एक नूर—सा फैला गया हूँ मैं

दुनिया को क्या ख़बर है कि क्या पा गया हूँ मैं
सिदक़—ओ—वफ़ा की राह में काम आ गया हूँ मैं

फागुन की सुबह—सा कभी मैं झिलमिला गया
सावन की शाम— सा कभी धुँधला गया हूँ मैं

आईना—ए—ज़मीर पे जब भी नज़र पड़ी
अपना ही अक़्स देख के शरमा गया हूँ मैं

गुमनामियों का मेरी ठिकाना नहीं कोई
अपने ही घर में अजनबी कहला गया हूँ मैं

अपना पता मिले तो कहीं साँस ले सकूँ
हंगामा—ए—वजूद से तंग आ गया हूँ मैं

‘साग़र’! हिसार—ए—ज़ात से छूटा तो यूँ लगा
इक उम्र— क़ैद काट के घर आ गया हूँ मैं.

६.

खिला रहता था जिनके प्यार का मधुमास आँखों में
वही अब लिख गए हैं विरह का इतिहास आँखों में

करेगी शांत क्या उसको अब उनके प्यार की बरखा
न जाने कौन से जन्मों की है ये प्यास आँखों में

मेरे दिल की अयोध्या में न जाने कब हो दीवाली
झलकता है अभी तो राम का बनवास आँखों में

पवन जब मन के दरवाज़े पे हल्की—सी भी दस्तक दे
तो लौट आता है फिर खोया हुआ विश्वास आँखों में

उभरती है पुरानी चोट कोई जब कसक बनकर
तो जाग उठता है फिर से दर्द का एहसास आँखों में

ये किसके पाँओं की आहट ने चौंकाया मुझे ‘साग़र’!
कि उग आई है तृष्णाओं की कोमल घास आँखों में



७.
सुबह हर घर के दरीचों में चहकती चिड़ियाँ
दिन के आग़ाज़ का पैग़ाम हैं देती चिड़ियाँ

फ़स्ल पक जाने की उम्मीद पे जीती हैं सदा
सब्ज़ खेतों की मुँडेरों पे फुदकती चिड़ियाँ

अब मकानों में झरोखे नहीं हैं शीशे हैं
जिनसे टकरा के ज़मीं पर हैं तड़पती चिड़ियाँ

किसी वीरान हवेली के सेह्न में अक्सर
उसके गुमगश्ता मकीनों को हैं रोती चिड़ियाँ

जेठ में गाँव के सूखे हुए तालाब के पास
जल की इक बूँद की ख़ातिर हैं भटकती चिड़ियाँ

खेत के खेत ही चुग जाते हैं ज़ालिम कव्वे
और हर फ़स्ल पे रह जाती हैं भूखी चिड़ियाँ

सोचता हूँ मैं ये ‘साग़र’! कि पनाहों के बग़ैर
ख़त्म हो जाएँगी इक दिन ये बेचारी चिड़ियाँ.


८.
जो इक पल भी किसी के दर्द में शामिल नहीं होता
उसे पत्थर ही कहना है बजा वो दिल नहीं होता

ये शह्र—ए —आरज़ू है जिसमे हासिल है किसे इरफ़ाँ
यहाँ अरमाँ मचलते हैं सुकून—ए—दिल नहीं होता

अगर जीना है वाँ मुश्किल तो मरना याँ नहीं आसाँ
जहाँ कोई किसी के दर्द का हामिल नहीं होता

सफ़ीना बच के तूफ़ाँ से निकल आए आए भी तो अक्सर
जहाँ होता था पहले उस जगह साहिल नहीं होता

वो अपनी जुस्तजू में दूध की तासीर तो लाए
फ़क़त पानी बिलोने से तो कुछ हासिल नहीं होता

कुछ अपने चाहने वाले ही हिम्मत तोड़ देते हैं
वगरना काम दुनिया में कोई मुश्किल नहीं होता

क़दम जो जानिब—ए—मंज़िल उठे वो ख़ास होता है
जहाँ में हर क़दम ही हासिल—ए— मंज़िल नहीं होता

हमीं कल मीर—ए—महफ़िल थे न जाने क्या हुआ ‘साग़र’!
हमारा ज़िक्र भी अब तो सरे— महफ़िल नहीं होता.

९.
बसा है जब से आकर दर्द—सा अज्ञात आँखों में
तभी से जल रही है आग —सी दिन—रात आँखों में

अजब गम्भीर—सा इक मौन था उन शुष्क अधरों पर
मचा था कामनाओं का मगर उत्पात आँखों में

न दे क़िस्मत किसी को विरह के दिन पर्बतों जैसे
तड़पते ही गुज़र जाती है जब हर रात आँखों में

ढली है जब से उनके प्यार की वो धूप मीठी —सी
उसी दिन से उमड़ आई है इक बरसात आँखों में

न अवसर ही मिला हमको व्यथा अपनी सुनाने का
सिसकती ही रही इक अनकही—सी बात आँखों में

हुई हैं इनमें कितने ही मधुर सपनों की हत्याएँ
है जीवन आज तक भी दर्द का आघात आँखों में

तुम्हारे प्यार का जोगी तो अब बन—बन भटकता है
रमाए धूल यादों की लिए बारात आँखों में

कहीं ऐसा न हो ‘साग़र’! उसे भी रो के खो बैठो
सुरक्षित है जो उजड़े प्यार की सौग़ात आँखों में.

१०.

फिर निगाहों में आ बसा कोई
होने वाला है हादसा कोई

गुमरही—सी है गुमरही यारो!
कोई मंज़िल न रास्ता कोई

जाने क्यों उस बड़ी हवेली से
आज आती नहीं सदा कोई

हर कोई अपने आप में गुम है
अब कहे तो किसी से क्या कोई

इश्क़ वो दास्तान है जिसकी
इब्तिदा है न इंतिहा कोई

वक़्त ने लम्हा—लम्हा लूटा जिसे
ज़िन्दगी है या बेसवा कोई

मुद्दई हैं न दावेदार ही हम
कोई दावा न मुद्दआ कोई

हमने तो सब की ख़ैर माँगी थी
किसलिए हमसे हो ख़फ़ा कोई

हर क़दम फूँक—फूँक रखते हैं
हमको दे दे न बद्दुआ कोई

देस अपना ही हो गया परदेस
कोई मैहरम न आशना कोई

बात ‘साग़र’! ख़िज़ाँ की करते हो
है बहारों का भी पता कोई ?

११.
फिर तसव्वुर में वही नक़्श उभर आया है
सुबह का भूला हुआ शाम को घर आया है

जुस्तजू है मुझ अपनी तो उसे अपनी तलाश
मेरा साया ही मुझे ग़ैर नज़र आया है

यह मेरा हुस्न—ए—नज़र है के करिश्मा सका
ज़र्रे—ज़र्रे में मुझे नूर नज़र आया है

उसकी लहरों पे थिरकता है तेरा अक़्स—ए—जमील
वो जो दरया तेरे गाँओं से गुज़र आया है

हिज्र की रात! नया ढूँढ ले हमदम कोई
मैं तो चलता हूँ मेरा वक़्त—ए—सफ़र आया है

जब हुई उनसे मुलाक़ात अचानक ’साग़र’!
इक सितारा—सा नज़र वक़्त—ए—सहर आया है.
( बीसवीं सदी )

१२.
इरादे थे क्या और क्या कर चले
कि खुद को ही खुद से जुदा कर चले

अदा यूँ वो रस्म—ए—वफ़ा कर चले
क़दम सूए—मक़्तल उठा कर चले

ये अहल—ए—सियासत का फ़र्मान है
न कोई यहाँ सर उठा कर चले

उजाले से मानूस थे इस क़दर
दीए आँधियों में जला कर चले

करीब उन के ख़ुद मंज़िलें आ गईं
क़दम से क़दम जो मिला कर चले

जिन्हें रहबरी का सलीक़ा न था
सुपुर्द उनके ही क़ाफ़िला कर चले

किसी की निगाहों के इक जाम से
इलाज—ए—ग़म—ए—नातवाँ कर चले


ग़ज़ल कह के हम हजरते मीर को
ख़िराज़—ए—अक़ीदत अदा कर चले.

१३.
काश वो इक पल ही आ जाते आस के सूने आँगन में
रंग—बिरंगे फूल महकते सोच के सूने उपवन में

सूनी धरती पर शायद फिर आई है रुत फूलों की
खेतों —खेतों सरसों फूली, सिम्बल फूले वन—वन में

धरी रही पूजा की थाली व्यर्थ मेरा श्रृंगार गया
वे प्रीतम नहीं लौट के आए बिछुड़े थे जो सावन में

शहनाई के स्वर हैं घायल गीतों में संगीत नहीं
पहली—सी वह बात कहाँ है अब पायल की झन—झन में

सपनों के जो गाँव बसे थे आँख खुली तो उजड़ गए
पिघल गए अंतर—ज्वाला से ढले बदन जो कंचन में

जाने कितना और है बाक़ी जीवन का बनवास अभी
मन का पंछी बँधता जाए मोह—माया के बंधन में

जीवन के हर मोड़ पे कितनी साँसों का बलिदान हुआ
जाने कितने सूरज डूबे सुख—दुख की इस उलझन में

गुम—सुम—से हम दिल में इक तूफ़ान छुपाए बैठे थे
उनसे नयन मिले तो कौंधी बिजली—सी इक तन—मन में

उनसे कोई संबंध नहीं है फिर भी वे जब मिल जाएँ
इक तेज़ी —सी आ जाती है `सागर’! दिल की धड़कन में.