
मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी
(25 जनवरी, 1929 — 30 अप्रैल, 1996)
परिचय
नाम: मनोहर शर्मा
उपनाम: ’साग़र’ पालमपुरी
जन्म : 25 जनवरी,1929
जन्मस्थान : गाँव झुनमान सिंह , तहसील शकरगढ़ (अब पाकिस्तान)
निधन : 30 अप्रैल,1996, स्थाई निवास , अशोक लाज , मारण्डा—पालमपुर (हिमाचल प्रदेश)
रचनाओं के लिए संपर्क सूत्र : द्विजेन्द्र ‘द्विज’ dwij.ghazal@gmail.com
****

१.
अपने ही परिवेश से अंजान है
कितना बेसुध आज का इन्सान है
हर डगर मिलते हैं बेचेहरा—से लोग
अपनी सूरत की किसे पहचान है
भावना को मौन का पहनाओ अर्थ
मन की कहने में बड़ा नुकसान है
चाँद पर शायद मिले ताज़ा हवा
क्योंकि आबादी यहाँ गुंजान है
कामनाओं के वनों में हिरण—सा
यह भटकता मन चलायेमान है
नाव मन की कौन —से तट पर थमे
हर तरफ़ यादों का इक तूफ़ान है
आओ चलकर जंगलों में जा बसें
शह्र की तो हर गली वीरान है
साँस का चलना ही जीवन तो नहीं
सोच बिन हर आदमी बेजान है
खून से ‘साग़र’! लिखेंगे हम ग़ज़ल
जान में जब तक हमारी जान है.
(सारिका)
२.

जंगल है महव—ए— ख़्वाब हवा में नमी —सी है
पेड़ों पे गुनगुनाती हुई ख़ामुशी —सी है
चट्टान है वो जिसको सुनाई न दे सके
झरनों के शोर में जो मधुर रागिनी सी है
उड़कर जो उसके गाँव से आती है सुबह—ओ—शाम
उस धूल में भी यारो महक फूल की— सी है
लगता है हो गया है शुरू चाँद का सफ़र
आँचल पे धौलाधार के कुछ चाँदनी —सी है
ओढ़े हुए हैं बर्फ़ की चादर तो क्या हुआ
इन पर्वतों के पीछे कहीं रौशनी —सी है
काँटों से दिल को कोई गिला इसलिए नहीं
रोज़—ए—अज़ल से इसमें ख़लिश दायिमी —सी है
हैं कितने बेनियाज़ बहार—ओ—ख़िज़ाँ से हम
य्ह ज़िन्दगी हमारे लिए दिल्लगी —सी है
साग़र ग़मों की धूप ने झुलसा दिया हमें
फिर भी दिल—ओ—नज़र में अजब ताज़गी—सी है.
३.
ख़ंजर—ब—क़फ़ है साक़ी तो साग़र लहू—लहू
है सारे मयकदे ही का मंज़र लहू—लहू
शायद किया है चाँद ने इक़दाम—ए—ख़ुदकुशी
पुरकैफ़ चाँदनी की है चादर लहू—लहू
हर—सू दयार—ए—ज़ेह्न में ज़ख़्मों के हैं गुलाब
है आज फ़स्ल—ए—गुल का तसव्वुर लहू—लहू
अहले—जफ़ा तो महव थे ऐशो—निशात में
होते रहे ख़ुलूस के पैक़र लहू—लहू
लाया है रंग ख़ून किसी बेक़ुसूर का
देखी है हमने चश्म—ए—सितमगर लहू—लहू
डूबी हैं इसमे मेह्र—ओ—मरव्वत की कश्तियाँ
है इसलिए हवस का समंदर लहू—लहू
क्या फिर किया गया है कोई क़ैस संगसार?
वीरान रास्तों के हैं पत्थर लहू—लहू
‘साग़र’!सियाह रात की आगोश के लिए
सूरज तड़प रहा है उफ़क़ पर लहू—लहू.
४.

खा गया वक्त हमें नर्म निवालों की तरह
हसरतें हम पे हसीं ज़ोहरा—जमालों की तरह
रूह की झील में चाहत के कँवल खिलते हैं
किसी बैरागी के पाक़ीज़ा ख़यालों की तरह
थे कभी दिल की जो हर एक तमन्ना का जवाब
आज क्यों ज़ेह्न में उतरे हैं सवालों की तरह ?
साथ उनके तो हुआ लम्हों में सालों का गुज़र
उनसे बिछुड़े तो लगे लम्हे भी सालों की तरह
ज़ख़्म तलवार के गहरे भी हों भर जाते हैं
लफ़्ज़ तो दिल में उतर जाते हैं भालों की तरह
हम समझते रहे कल तक जिन्हें रहबर अपने
पथ से भटके वही आवारा ख़्यालों की तरह
इनको कमज़ोर न समझो कि किसी रोज़ ये लोग
मोड़ देंगे इसी शमशीर को ढालों की तरह
फूल को शूल समझते हैं ये दुनिया वाले
बीते इतिहास के विपरीत हवालों की तरह
आफ़रीं उनपे जो तौक़ीर—ए—वतन की ख़ातिर
दार पर झूल गए झूलने वालों की तरह
हम भरी भीड़ में हैं आज भी तन्हा—तन्हा
अह्द—ए—पारीना के वीरान शिवालों की तरह
ग़म से ना—आशना इंसान का जीना है फ़ज़ूल
ज़ीस्त से लिपटे हैं ग़म पाँवों के छालों की तरह
अब कन्हैया है न हैं गोपियाँ ब्रज में ‘साग़र’!
हम हैं फ़ुर्क़तज़दा मथुरा के गवालों की तरह.
(25 जनवरी, 1929 — 30 अप्रैल, 1996)
परिचय
नाम: मनोहर शर्मा
उपनाम: ’साग़र’ पालमपुरी
जन्म : 25 जनवरी,1929
जन्मस्थान : गाँव झुनमान सिंह , तहसील शकरगढ़ (अब पाकिस्तान)
निधन : 30 अप्रैल,1996, स्थाई निवास , अशोक लाज , मारण्डा—पालमपुर (हिमाचल प्रदेश)
रचनाओं के लिए संपर्क सूत्र : द्विजेन्द्र ‘द्विज’ dwij.ghazal@gmail.com
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१.
अपने ही परिवेश से अंजान है
कितना बेसुध आज का इन्सान है
हर डगर मिलते हैं बेचेहरा—से लोग
अपनी सूरत की किसे पहचान है
भावना को मौन का पहनाओ अर्थ
मन की कहने में बड़ा नुकसान है
चाँद पर शायद मिले ताज़ा हवा
क्योंकि आबादी यहाँ गुंजान है
कामनाओं के वनों में हिरण—सा
यह भटकता मन चलायेमान है
नाव मन की कौन —से तट पर थमे
हर तरफ़ यादों का इक तूफ़ान है
आओ चलकर जंगलों में जा बसें
शह्र की तो हर गली वीरान है
साँस का चलना ही जीवन तो नहीं
सोच बिन हर आदमी बेजान है
खून से ‘साग़र’! लिखेंगे हम ग़ज़ल
जान में जब तक हमारी जान है.
(सारिका)
२.

जंगल है महव—ए— ख़्वाब हवा में नमी —सी है
पेड़ों पे गुनगुनाती हुई ख़ामुशी —सी है
चट्टान है वो जिसको सुनाई न दे सके
झरनों के शोर में जो मधुर रागिनी सी है
उड़कर जो उसके गाँव से आती है सुबह—ओ—शाम
उस धूल में भी यारो महक फूल की— सी है
लगता है हो गया है शुरू चाँद का सफ़र
आँचल पे धौलाधार के कुछ चाँदनी —सी है
ओढ़े हुए हैं बर्फ़ की चादर तो क्या हुआ
इन पर्वतों के पीछे कहीं रौशनी —सी है
काँटों से दिल को कोई गिला इसलिए नहीं
रोज़—ए—अज़ल से इसमें ख़लिश दायिमी —सी है
हैं कितने बेनियाज़ बहार—ओ—ख़िज़ाँ से हम
य्ह ज़िन्दगी हमारे लिए दिल्लगी —सी है
साग़र ग़मों की धूप ने झुलसा दिया हमें
फिर भी दिल—ओ—नज़र में अजब ताज़गी—सी है.
३.

ख़ंजर—ब—क़फ़ है साक़ी तो साग़र लहू—लहू
है सारे मयकदे ही का मंज़र लहू—लहू
शायद किया है चाँद ने इक़दाम—ए—ख़ुदकुशी
पुरकैफ़ चाँदनी की है चादर लहू—लहू
हर—सू दयार—ए—ज़ेह्न में ज़ख़्मों के हैं गुलाब
है आज फ़स्ल—ए—गुल का तसव्वुर लहू—लहू
अहले—जफ़ा तो महव थे ऐशो—निशात में
होते रहे ख़ुलूस के पैक़र लहू—लहू
लाया है रंग ख़ून किसी बेक़ुसूर का
देखी है हमने चश्म—ए—सितमगर लहू—लहू
डूबी हैं इसमे मेह्र—ओ—मरव्वत की कश्तियाँ
है इसलिए हवस का समंदर लहू—लहू
क्या फिर किया गया है कोई क़ैस संगसार?
वीरान रास्तों के हैं पत्थर लहू—लहू
‘साग़र’!सियाह रात की आगोश के लिए
सूरज तड़प रहा है उफ़क़ पर लहू—लहू.
४.

खा गया वक्त हमें नर्म निवालों की तरह
हसरतें हम पे हसीं ज़ोहरा—जमालों की तरह
रूह की झील में चाहत के कँवल खिलते हैं
किसी बैरागी के पाक़ीज़ा ख़यालों की तरह
थे कभी दिल की जो हर एक तमन्ना का जवाब
आज क्यों ज़ेह्न में उतरे हैं सवालों की तरह ?
साथ उनके तो हुआ लम्हों में सालों का गुज़र
उनसे बिछुड़े तो लगे लम्हे भी सालों की तरह
ज़ख़्म तलवार के गहरे भी हों भर जाते हैं
लफ़्ज़ तो दिल में उतर जाते हैं भालों की तरह
हम समझते रहे कल तक जिन्हें रहबर अपने
पथ से भटके वही आवारा ख़्यालों की तरह
इनको कमज़ोर न समझो कि किसी रोज़ ये लोग
मोड़ देंगे इसी शमशीर को ढालों की तरह
फूल को शूल समझते हैं ये दुनिया वाले
बीते इतिहास के विपरीत हवालों की तरह
आफ़रीं उनपे जो तौक़ीर—ए—वतन की ख़ातिर
दार पर झूल गए झूलने वालों की तरह
हम भरी भीड़ में हैं आज भी तन्हा—तन्हा
अह्द—ए—पारीना के वीरान शिवालों की तरह
ग़म से ना—आशना इंसान का जीना है फ़ज़ूल
ज़ीस्त से लिपटे हैं ग़म पाँवों के छालों की तरह
अब कन्हैया है न हैं गोपियाँ ब्रज में ‘साग़र’!
हम हैं फ़ुर्क़तज़दा मथुरा के गवालों की तरह.
28 comments:
खा गया वक्त हमें नर्म निवालों की तरह
हसरतें हम पे हसीं ज़ोहरा—जमालों की तरह
kya khoob hai !!
सभी रचनाएं उम्दा. लिखते रहिये सागर साहेब.
---
उल्टा तीर
bahut khoob sukhanwar the saghar sahab... aap ka prasutikarN behatareen hai...
है बहुत पुर लुत्फ साग़र का कलाम
हर ग़ज़ल है बादह ए इशरत का जाम
है द्विजिन्दर द्विज का यह हुस्ने अमल
बाप का रौशन किया है जिसने नाम
डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी
नई दिल्ली-110025
बहूत खूब
Shri Manohar sharma sagar jee kee gazlen padh kar mazaa aa gaya hai.
kya hee khoobsoorat aur umda shairee hai unkee.Takreeban har sher
taraashe hue heere kee tarah hai.Hindi shabdon shabdon kaa istemaal
lajawab hai,gazlon ko chaar chaan lagaata hai.Hindi shabdon kaa aesaa
hee istemaal Urdu ke mashhoor shair Firaq Gorarkhpuri ne bhee kiya tha
Roop kee rubaeeon mein.
Shri Manohar Sharma Sagar jee kee sabhee gazlon kaa
prachaar/prasaar hona chaahiye kyonke unke bahut se sher lokoktion
se kam nahin.
PRAN SHARMA
Reply Forward
All the ghazals are very good. I'm not a writer but, seriously hats off to him for his legendary poetry.
अच्छी गज़लें पढ़ कर आनंद आया आपकी प्रस्तुति सार्थक हुई
har gazal apne-aap me misal hai.....
ज़ख़्म तलवार के गहरे भी हों भर जाते हैं
लफ़्ज़ तो दिल में उतर जाते हैं भालों की तरह
Wah....kya khooob...!
Dwij ji, Sagar ji ki gazalen padhwane k liye sukriya....
ye word verification hta len....
bahut kamaal ki gazlen haiM
कुछ और पोस्ट कर कृपया लाभान्वित करने का कष्ट करें
आदरणीय भाई बृजमोहन श्रीवास्तव जी
इस ब्लॉग पर आने के लिए धन्यावाद.
इस ब्लॉग में साग़र पालमपुरी जी की
56 से
अधिक ग़ज़लें हैं.
अगर आपने सारी ग़ज़लें पढ़ ली हैं
तो मैं समझता हूँ
मेरा यह प्रयास सार्थक हो गया.
वैसे जल्दी ही और रचनायें भी जोड़ने जा रहा हूं
सादर
द्विजेन्द्र द्विज
गणतंत्र दिवस के पुनीत पर्व के अवसर पर आपको हार्दिक शुभकामना और बधाई .
महेंद्र मिश्र जबलपुर.
खून से ‘साग़र’! लिखेंगे हम ग़ज़ल
जान में जब तक हमारी जान है
achchhi gajalen hain
खा गया वक्त हमें नर्म निवालों की तरह
हसरतें हम पे हसीं ज़ोहरा—जमालों की तरह
ye sher khaas pasand aaya....
सभी रचनाएं उम्दा
समयचक्र: चिठ्ठी चर्चा : वेलेंटाइन, पिंक चडडी, खतरनाक एनीमिया, गीत, गजल, व्यंग्य ,लंगोटान्दोलन आदि का भरपूर समावेश
खून से ‘साग़र’! लिखेंगे हम ग़ज़ल
जान में जब तक हमारी जान है
bahut hi achhi gazlen hain. dwij sahab aapki bhi gazlon ka jawab nahi
. agar kabhi waqt mil jaye to hamara blog bhi dekhen.
खूबसूरत ग़ज़लों का प्यारा कलेक्शन किया है आपने,
बहुत सुंदर रचना है. खासकर अन्तिम दो शेर बहुत पसंद आए.
बधाई।
गागर में सागर भरा,
द्विज ने किया कमाल.
चुल्लू भर पी ले 'सलिल',
हो मन-प्राण निहाल.
हो मन-प्राण निहाल.
काव्य नर्मदा निर्मला.
आदि नहीं पाया ना इसका अंत ही मिला.
खोटा कोई नहीं, गजल का शे'र हर खरा.
शब्द-शब्द मन पर दस्तक दे, पीर हर रहा.
sanjivsalil.blogspot.com
-divyanarmada.blogspot.com
dwij ji, sagar sahab ki itni dilchasp,lajawaab gazlon se parichit karane ke liye dhanyawaad , aur han mere blog par aane aur comment ke liye bhi hardik dhanyawaad. punah padharen.
aaj pehlee baar is utsuktaa se aapke blog par aayee ki agar aap itna sunder likhtey hain to saagar paalam puree sahaab kaisa likhtey hongen ...aur aakar aisaa laga jaisey man ko kisee pavitr jalse dho rahin hoon ek ek shabd daee chupee bhaavnaon ko dheerey se sahalaata hai to kabhee chipey dard ko khurch jaata aur phir vahin koi panktee naram faahey se jakham par holey se marham bhee lagaa jaatee hai ...aap bahut bhagyashaalee hain ki aapko unkaa putr honen ka saubhaagyaa praapt hai
sujata Dua
पालमपुरी साहब की गजलें पढकर मजा आ गया। आपका हार्दिक आभार।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आप का ब्लाग अच्छा लगा...बहुत बहुत बधाई....
एक नई शुरुआत की है-समकालीन ग़ज़ल पत्रिका और बनारस के कवि/शायर के रूप में...जरूर देखें..आप के विचारों का इन्तज़ार रहेगा....
‘मुक्तक विशेषांक’ हेतु रचनाएँ आमंत्रित-
देश की चर्चित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक त्रैमासिक पत्रिका ‘सरस्वती सुमन’ का आगामी एक अंक ‘मुक्तक विशेषांक’ होगा जिसके अतिथि संपादक होंगे सुपरिचित कवि जितेन्द्र ‘जौहर’।
उक्त विशेषांक हेतु आपके विविधवर्णी (सामाजिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक, धार्मिक, शैक्षिक, देशभक्ति, पर्व-त्योहार, पर्यावरण, शृंगार, हास्य-व्यंग्य, आदि अन्यानेक विषयों/ भावों) पर केन्द्रित मुक्तक/रुबाई/कत्अ एवं तद्विषयक सारगर्भित एवं तथ्यपूर्ण आलेख सादर आमंत्रित हैं।
इस संग्रह का हिस्सा बनने के लिए न्यूनतम 10-12 और अधिकतम 20-22 मुक्तक भेजे जा सकते हैं।
लेखकों-कवियों के साथ ही, सुधी-शोधी पाठकगण भी ज्ञात / अज्ञात / सुज्ञात लेखकों के चर्चित अथवा भूले-बिसरे मुक्तक/रुबाइयात/कत्आत भेजकर ‘सरस्वती सुमन’ के इस दस्तावेजी ‘विशेषांक’ में सहभागी बन सकते हैं। प्रेषक का नाम ‘प्रस्तुतकर्ता’ के रूप में प्रकाशित किया जाएगा। प्रेषक अपना पूरा नाम व पता (फोन नं. सहित) अवश्य लिखें।
इस विशेषांक में एक विशेष स्तम्भ ‘अनिवासी भारतीयों के मुक्तक’ (यदि उसके लिए स्तरीय सामग्री यथासमय मिल सकी) भी प्रकाशित करने की योजना है।
मुक्तक-साहित्य उपेक्षित-प्राय-सा रहा है; इस पर अभी तक कोई ठोस शोध-कार्य नहीं हुआ है। इस दिशा में एक विनम्र पहल करते हुए भावी शोधार्थियों की सुविधा के लिए मुक्तक-संग्रहों की संक्षिप्त समीक्षा सहित संदर्भ-सूची तैयार करने का कार्य भी प्रगति पर है।इसमें शामिल होने के लिए कविगण अपने प्रकाशित मुक्तक/रुबाई/कत्आत के संग्रह की प्रति प्रेषित करें! प्रति के साथ समीक्षा भी भेजी जा सकती है।
प्रेषित सामग्री के साथ फोटो एवं परिचय भी संलग्न करें। समस्त सामग्री केवल डाक या कुरियर द्वारा (ई-मेल से नहीं) निम्न पते पर अति शीघ्र भेजें-
जितेन्द्र ‘जौहर’
(अतिथि संपादक ‘सरस्वती सुमन’)
IR-13/6, रेणुसागर,
सोनभद्र (उ.प्र.) 231218.
मोबा. # : +91 9450320472
ईमेल का पता : jjauharpoet@gmail.com
ब्लॉग : jitendrajauhar.blogspot.com
बहुत सुन्दर रचना| धन्यवाद|
Sagar Palampuri bemisaal hain. Unka ek bahut umda she..ar yaad aa gaya-
"Aaeena-e-zameer pe jab bhi nazar padi
Apna hi aqs dekh ke sharmaa gaya hoon main."
Dwij uncle ,daadu ji ki rachnayein padh kar mazaa aa gaya.Aisa lagaa ki mil liya ho unse
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